हम कितना भी आज में जी लें - हम कितना भी आज में जी लें , कितना भी अपने आप को समझा लें की जो बीत गया सो बीत गया अब आगे की सोचो लेकिन हमारा बचपन और उससे जुड़ी यादें ताज़ा हो ही जाती हैं। हमारे साथ कुछ ना कुछ ऐसा हो ही जाता है जिससे की गुजरे हुए पल की कोई तस्वीर या याद सामने आ ही जाती है। उस रात भी ऐसा ही हुआ।
नवरात्र की रात और बचपन की याद - नवरात्र का समय चल रहा था। आसपास का माहौल त्यौहार के माहौल में ढल रहा था। माता के भक्ति वाले गाने बज रहे थे और डांडिया, गरबे वाले गाने भी बज रहे थे। मैं भी पास के मंदिर में से गाने और डांडिया का आनंद लेकर आके अपने बिस्तर पर लेटा था और साथ में मेरा बेटा भी सो रहा था। उस समय कमरे में मैं और मेरा बेटा ही थे। बाकी लोग अपने अपने काम निपटाने में व्यस्त रहे होंगे। मेरे बेटे को मेरे साथ बात करना और सोना बहुत अच्छा लगता है इसलिए जब भी मौका मिलता है वो मेरे साथ सो जाता है। अगले दिन उसके स्कूल की छुट्टी थी इसलिए उसने मेरे साथ थोड़ी देर तक ढेर सारी बातें की और सो गया। मैंने भी उसे बहुत सारे किस्से कहानियां सुनाया जो की मेरे बचपन की आदत है।
बचपन और किस्से कहानियां - मेरा भी बचपन नब्बे के दौर में बीता है तो जाहिर सी बात है की किस्से ,कहानियों और पहेलियों से मेरा बहुत पुराना नाता है। बचपन में मेरी शामें और रातें खासकर छुट्टियों वाली रातें अपने भाई बहनों के साथ तो कभी कभी दोस्तों के साथ किस्से कहानियां सुनने और सुनाने में ही गुजरी हैं। अगर आज के समय में ऐसा कोई मिल जाता है या मौका आता है तो फिर से वो बचपन वाली महफ़िल जम ही जाती है। लेकिन आज के समय में ऐसा एकाध बार या ना के बराबर ही होता है क्योंकि समय बदल चूका है वो समय और माहौल अलग था और आज का माहौल अलग है। ये बदलाव कितना सही है और कितना गलत है ये शोध का विषय हो सकता है। वैसे सोचने पर तो ऐसा लगता है की काश वो बचपन और वो सुनहरे पल फिर से लौट आते।
वो रात और दूरदर्शन की याद -उस रात भी मैंने बेटे को किस्से और कहानियां सुनाया। कुछ समय बाद वो सो गया। कमरे की लाइट बंद थी। उस कमरे में घर का मंदिर होने के कारण दुर्गा माता की तस्वीर के सामने दीया जल रहा था। पड़ोसी के घर से टीवी की आवाज आ रही थी। शायद कोई फिल्म देख रहा था या धारावाहिक पता नहीं। वैसे भी रिमोट का जमाना है हो सकता है वो चैनल बदल रहा होगा।
कमरे में अँधेरा ,दीया का जलना ,पड़ोसी के टेलीविज़न से आवाज आना इन सबसे मुझे याद आ गया अपने उस नब्बे के दौर के बचपन का , गंगा नदी के उस पार के अपने गांव का ,घर के आँगन में गुजरी हुई उन सुकून भरी रातों का ,ताखे में जलते हुए दिए का , दूरदर्शन के ज़माने का।
गांव और ब्लैक एंड वाइट टीवी का जमाना - मुझे याद आ रहा था वो समय और वैसा ही महसूस हो रहा था जैसा उन दिनों महसूस होता था। उन दिनों सबके घर में टेलीविज़न नहीं होता था , किसी किसी के घर में ही टेलीविज़न होता था। और उसमें भी कलर टीवी भी किसी किसी के घर में ही होता था। मेरा घर भी गांव के उन कुछ घरों में आता था जहाँ टेलीविज़न होता था लेकिन ब्लैक एंड वाइट।
कभी कभी किसी किसी के घर में जाना होता था जहाँ हमें किस्मत से रंगीन टीवी में कोई फिल्म या कोई और कार्यक्रम देखने को मिल जाता था तो वो पल हमें किसी खास पल जैसा महसूस होता था। हम अपने दोस्तों से ये बताने में बहुत ही गर्व महसूस करते थे और बड़ी ही खुशी से बताते थे की ए भाय (दोस्त या फिर भाई के लिए ये शब्द बोला जाता था ) जानते हो आज मैंने फलां के घर में रंगीन टीवी में ये फिल्म देखी और उस फिल्म में ये हीरो था और फिर पूरी फिल्म की कहानी खासकर ढिशुम ढिशुम वाले सीन के बारे में बड़े ही दिल से और चाव से बताते थे।
वैसे उन दिनों गांव में बिजली नहीं ही होती थी बिजली के तार तो पहुंचे हुए थे लेकिन बिजली कभी कभी आती थी और आज कल भी गांव में लगभग वैसी ही हालत है बिजली के मामले में।
गांव में वीसीआर का चलन - कभी कभी ऐसा भी होता था की घर में बिजली नहीं होती थी। गांव के अंदर या गांव के थोड़ा बाहर कोई बारात आकर रुकती थी या इसी तरह का कोई कार्यक्रम होता था जैसे की जन्मास्टमी के त्यौहार का कार्यक्रम उन दिनों इस तरह के कार्यक्रमों में रात को वीसीआर पर फ़िल्में देखने का बहुत चलन था। लोग खासकर उस समय के युवा और बड़े होते बच्चे उत्सुक होते थे की आज वीडियो आने वाला है इतने बजे से शुरू होगा फ़िल्में देखने को मिलेंगी वो भी बड़ी सी रंगीन टीवी पर। लेकिन मेरे घर परिवार में बाहर जाकर फिल्म देखना मना था। अपने अँधेरे आँगन में ताखे पर जलते हुए दिए की रोशनी में अपनी खटिया (चारपाई ) पर लेते हुए जब दूर से आती हुई किसी फिल्म की आवाज आती थी तो मन तरसता था की काश मैं भी वो फिल्म देख रहा होता तो कितना मजा आता खासकर किसी ढिशुम ढिशुम वाले सीन के बारे में सोच कर। कभी कभी मन से गुस्से में बददुआ भी निकलती थी की भगवान करे इनकी टीवी ख़राब हो जाये या वीसीआर खराब हो जाये।
गांव के लोगों की सिनेमा के प्रति सोच - उन दिनों सिनेमा थिएटर में जाना और फिल्म देखना हमारे गांव में अच्छा नहीं माना जाता था। वैसे देखने वाले तो देखते ही थे। सिनेमा थिएटर में जाते भी कैसे गांव में और गांव के आस पास कोई थिएटर था ही नहीं इसलिए वीसीआर से फिल्म देखने का मौका कोई छोड़ना नहीं चाहता था ।
अगर गांव का कोई युवा या आदमी पास के शहर में जाकर सिनेमा थिएटर में कोई फिल्म देख ले और गांव के लोगों के नज़र में आ जाये तो उसके बारे में कुछ इस तरह से बातें होती थी की फलाना का बेटा सलीमा देखता है (उन दिनों गांव के लोग सिनेमा को सलीमा बोलते थे ) बताओ इनको पढ़ने के लिए भेजा जाता है और ये सलीमा देखते हैं। माँ बाप का पैसा बर्बाद करते हैं। सलीमा देख कर गलत गलत बातें सीखते हैं और बिगड़ते हैं।
फिल्म देखने की बेसब्री - ये सब बातें तो याद आ ही रही थी लेकिन उस अँधेरे कमरे में पड़ोसी की टीवी के आवाज के कारण गांव के एक खास दिन की याद आ गयी। तब मैं शायद चौथी कक्षा का छात्र था। गर्मी की छुट्टियां शुरू हो चुकी थी। मेरे घर में किसी की शादी थी। जिस दिन बारात आयी वो शायद शुक्रवार का दिन था। उन दिनों दूरदर्शन पर शुक्रवार और शनिवार को रात को ९ बजे के बाद हिंदी फिल्म आती थी। हमें हफ्ते भर से ही फिल्म का बेसब्री से इंतज़ार रहता था। इतनी बेसब्री से इंतज़ार रहता था की कौन सी फिल्म आने वाली है ये हम उन दिनों अखबार में खासकर शुक्रवार से पहले वाले अख़बार में पहले ही देख लेते थे की फला दिन को इतने बजे ये फिल्म आने वाली है। और कभी कभी फिल्म के नाम से अंदाजा लगाते थे कल्पना करते थे की फिल्म कैसी होगी और उसमें क्या क्या हो सकता है।
शादी की रात और फिल्म - तो अब उस दिन पर आता हूँ। वो शायद शुक्रवार का दिन था। अँधेरा हो चूका था। बारात आकर ठहर चुकी थी। रात को एक एक्शन फिल्म आने वाली थी। हम बच्चों का प्लान था की बारात की ओर जाते समय गांव के बाहर की तरफ जो घर है उनके घर की टीवी में वो फिल्म देखेंगे और उसके बाद बारात में जाकर बिरहा सुनेंगे।
लेकिन प्लान तो प्लान होता है जरूरी नहीं है की हमेशा कामयाब ही रहे। तो ये प्लान भी सही से कामयाब नहीं हुआ। हुआ ये की जब हमने उस घर का दरवाजा खटखटाया तो किसी ने दरवाजा ही नहीं खोला। लेकिन उनके टीवी में से फिल्म की आवाज आ रही थी। गांव में रात को ९ बजे बहुत रात हो जाती है और इतनी रात को किसी के घर आना जाना सही नहीं माना जाता है। हम कितना भी दरवाजा खटखटाते रहे और आवाज लगाते रहे की दरवाजा खोल दो हम बच्चे हैं। लेकिन उनको कोई फर्क नहीं पड़ा।
फिल्म की आवाज से हम बच्चों को और ज्यादा मन हो रहा था की कब हम वो फिल्म देखें। हम लोग आसपास के और घरों में भी गए लेकिन वहां भी काम नहीं बना।
फिर हम अपने गांव के अंदर गए और अपने घर के पड़ोस में गए और वहां काम बन गया उन्होंने दरवाजा खोल दिया क्योंकि वो हम बच्चों को बहुत पसंद करते थे और पसंद करने का कारण ये भी था की उनके घर में बच्चे नहीं थे। लेकिन हमारा प्लान पूरी तरह कामयाब नहीं हुआ। फिल्म खत्म होने वाली थी। एक्शन सीन खत्म हो चूका था। फिल्म के हीरो को पुलिस की गोली लग चुकी थी और वो मर चूका था।
समय का बदलाव और मनोरंजन का बंटवारा - वैसे मनोरंजन उन दिनों में भी आधा अधूरा ही मिलता था और आज भी आधा अधूरा ही होता है मनोरंजन की इतनी सारी सुविधाओं के बावजूद भी। उन दिनों कभी बिजली ना होने के कारण ,तो कभी किसी के दरवाजा ना खोलने के कारण , कभी सुबह स्कूल जाने के लिए रात को जल्दी सोने के कारण। लेकिन घर में टीवी आने पर जितने भी कार्यक्रम परिवार के साथ बैठकर दूरदर्शन पर देखे वो सब आज याद करके बहुत अच्छा लगता है।
आज भी आधा अधूरा मनोरंजन होता है क्योंकि अब उन दिनों वाली बात नहीं रही जब सब लोग एक साथ बैठकर कोई कार्यक्रम देखा करते थे। अब बेशक अलग अलग टीवी चैनल से लेकर स्मार्टफोन और ओटीटी प्लेटफार्म के मनोरंजन के विकल्प आ चुके हैं। लेकिन अब ऐसे कार्यक्रम बनते हैं की वो सभी के एक साथ बैठकर देखने लायक नहीं होते हैं। अगर होते भी हैं तो सभी को पसंद नहीं होते हैं। अब स्मार्टफोन के कारण सबके पास अपने अपने मनपसंद कार्यक्रम हैं। सब अलग अलग कोने में कभी लेटकर तो कभी बैठ कर अपने अपने कार्यक्रम देखने में लगे रहते हैं। ऐसा लगता है की पलायन , अलगाववाद ,बंटवारे के साथ बदलते इस समय में मनोरंजन का भी बंटवारा होता जा रहा है।
और हो सकता है ऐसा होते होते ऐसा समय भी आये जब एक साथ बैठकर दोस्तों के साथ और परिवार के साथ कोई अच्छा कार्यक्रम देखना लगभग खत्म हो जाये। और ये अतीत की बात हो जाये और अगली पीढ़ी के लोगों को ये सुनकर और जानकर ताज्जुब हो की कभी ऐसा भी होता था की लोग अपने परिवार के साथ ,मोहल्ले वालों के साथ ,दोस्तों के साथ बैठकर मनोरंजक कार्यक्रम देखा करते थे। जैसे आज के बच्चो को ये जान कर बहुत आश्चर्य होता है की कभी ब्लैक एंड वाइट टीवी हुआ करती थी और उसमे एक ही चैनल आता था। उसमें अलग अलग चैनल और रिमोट की सुविधा नहीं होती थी।
उसमें सिग्नल आने के लिये एक एंटीना होता था जो की घर की छत पर लगा होता था। अगर मौसम ख़राब हो जाये ,हवा के कारण एंटीना घूम जाये , कोई पंछी आकर एंटीना पर बैठ जाये ,कोई शरारत के कारण एंटीना हिला दे या घुमा दे तो सिग्नल नहीं आता था। जाकर एंटीना को सही दिशा में घुमाना पड़ता था। और जो शरारत करता था इस तरह की उसका इलाज भी करना पड़ता था। वैसे ज्यादातर तो डांटने से काम बन जाता था। ज्यादातर ऐसे शरारत करने वाला कोई बच्चा ही होता था।
लेकिन आज के इस मोबाइल और लैपटॉप के दौर में उस समय की कोई भी फिल्म सर्च करके देखना कोई बड़ी बात नहीं है। देखा जाये तो सब समय का ही खेल है। पहले ब्लैक एंड वाइट टीवी जिसके साथ कोई रिमोट नहीं होता था और ना ही चैनल बदलने का कोई विकल्प था। सिगनल पकड़ने के लिए एंटीने का इस्तेमाल। उसके बाद पहले कलर टीवी का आना फिर रिमोट और अलग चैनल का आना उसके बाद वीसीआर का चलन ,उसके बाद सीडी प्लेयर और डीवीडी प्लेयर का चलन ,उसके बाद पेनड्राइव का चलन , मेमोरी कार्ड का चलन से लेकर अपने अपने स्मार्टफ़ोन में ही ऑनलाइन प्रोग्राम देखने का चलन और आगे भी पता नहीं समय के साथ साथ क्या क्या बदलाव होगा।
जो बीत गया सो बीत गया - जो बीत गया सो बीत गया ऐसा सोचकर मैंने भी करवट बदलकर सोना सही समझा। यादें तो आती ही रहेंगी जब तब। पुराने समय को वापस नहीं लाया जा सकता है लेकिन उस समय जैसा ही महसूस करके आज में भी जिया जा सकता है वही खुशी वही ऊर्जा के साथ। काफी देर तक जागने और सोचने के बाद मैंने सोना ही ठीक समझा। आखिर नींद पूरी करके सुबह जल्दी जागना भी तो जरूरी है।
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