क्या हिंदी आप पर थोपी हुई भाषा है ? ये सवाल उनलोगों के लिए बिलकुल बेबुनियाद लग रहा होगा जो हिंदी जानते हैं और सबसे ज्यादा हिंदी में ही संपर्क करते हैं। लेकिन हमारे देश भारत के कुछ हिस्सों में खासकर महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में हिंदी भाषा और हिंदी बोलने वालों के प्रति जिस तरह का व्यवहार कभी कभी देखने में आता है उससे ये सवाल तो उठता है। हालाँकि ये कहना भी उचित है की ये समस्याएं वास्तविक कम लेकिन किसी राजनितिक उद्देश्य के लिए समय समय पर उठाई जाती हैं और सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों से फैलाई जाती हैं। इसके ऊपर दूसरा लेख और वीडियो बन सकता है। फ़िलहाल इस सवाल का जवाब की "क्या हिंदी आप पर थोपी हुई भाषा है?" तथ्यों और तर्कों के हिसाब से जानना जरुरी है।
इस सवाल का जवाब जानना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि बहुत लोगों को लगता है की हिंदी थोपी हुई भाषा है क्योंकि वो ये मानते हैं की ये जो हिंदी भाषा है वो उत्तर भारतीयों की भाषा है खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में रहने वालों की। इसलिए उनके लिए यानि उत्तर भारतियों के लिए हिंदी भाषा बोलना बहुत ही आसान है और बाकी लोगों पर खासकर जो दक्षिण भारतीय हैं उन पर ये थोपा नहीं जाना चाहिए। लेकिन ये बात सही नहीं है ये सिर्फ एक ग़लतफ़हमी है हिंदी उत्तर भारत की भाषा नहीं है बल्कि अपनाई हुई भाषा है। अगर उत्तर भारत के अलग अलग राज्यों की मूल भाषाओं की बाते करें तो वो भाषाएँ हिंदी से बहुत अलग हैं।
उन भाषाओं में से बहुत सी भाषाएँ हिंदी की उपभाषाएँ मानी जाती हैं या ये भी कहा जा सकता है की वो भाषाएँ हिंदी के ही अलग अलग रूप हैं। जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में बोली जाने वाली भोजपुरी,ब्रज,उर्दू,अवधी,बुंदेलखंडी,कन्नौजी,बघेली,खड़ी बोली,मैथिली,मगही,अंगिका,बज्जिका,नागपुरी,संथाली इत्यादि। ये भाषाएँ बोलने में हिंदी से बहुत अलग होती हैं। ये भाषाएँ हिंदी की रूप जरूर हैं लेकिन अगर कोई ऐसा आदमी जो हिंदी जानता हो और बाकि भाषाएँ नहीं तो वो इन भाषाओं को ना तो समझ पायेगा और ना ही संपर्क कर पायेगा। इसी तरह से अन्य उत्तर भारत के राज्यों जैसे जम्मू -कश्मीर ,हरियाणा पंजाब ,मध्यप्रदेश ,राजस्थान आदि में अलग अलग भाषाएँ हैं।
हालाँकि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी चाहते थे हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बने और उन्होंने सन् 1917 में सबसे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी।लेकिन 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यानि सभी की सहमति से बिना कोई दबाव के इसे राजभाषा का दर्जा देने को लेकर सहमति जताई।1950 में संविधान के अनुच्छेद 343(1) के द्वारा हिंदी को देवनागरी लिपि के रूप में राजभाषा का दर्जा दिया गया।हमारे संविधान में ऐसे बहुत सारे अनुच्छेद हैं जो की हिंदी के प्रचार प्रसार को तो बढ़ावा देते हैं लेकिन हमारे देश की सभी भाषाओँ को भी सुरक्षा ,प्रचार प्रसार और उनके विकास को बढ़ावा देते हैं।
ये भी ध्यान देने योग्य है की भले ही राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी चाहते थे की राष्टभाषा हिंदी हो लेकिन हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन पायी क्योंकि संविधान सभा में इस मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई थी। इससे भी ये साबित होता है की हिंदी आप पर थोपी हुई भाषा नहीं है बल्कि हिंदी को जो भी मान्यता प्राप्त है वो सबकी सहमति से है और देश हित में है। हिंदी के राष्ट्रभाषा नहीं बनने के कई कारण थे।
पहला है सहमति का अभाव -हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में संविधान सभा में पक्ष और विपक्ष में सहमति नहीं हो पायी सबके अलग अलग विचार थे। यानि कुछ लोग चाहते थे की हिंदी राष्ट्रभाषा बने और कुछ नहीं चाहते थे। अगर सबकी सहमति होती तो ही सविंधान सभा में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल गया होता।
दूसरा कारण है दक्षिण भारतीय राज्यों का विरोध -जो दक्षिण भारतीय राज्य हैं उनको ये डर था की अगर हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल गया तो जो उनकी भाषा है उसकी उपेक्षा होगी या उन भाषाओ को बढ़ावा नहीं मिलेगा। इसलिए वो राज्य हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के खिलाफ थे।
तीसरा कारण अंग्रेजी भाषा का प्रभाव है - बहुत लोग अंग्रेजी भाषा के पक्ष में थे और अभी भी हैं क्योंकि हमारे समाज में, संविधान में बहुत पहले से अंग्रेजी भी अपनी जगह बना चुकी है और एक आधिकारिक भाषा भी है।
चौथा कारण है भाषायी विविधता यानि हमारे देश में बहुत सारी भाषाएँ हैं और बोलियां हैं। सभी भाषाओं को एक समान सम्मान देना भी एक चुनौती है। सविंधान निर्माता ये बात समझ रहे थे की इतनी विविधता वाले देश में बिना सभी की सहमति के हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना उचित नहीं है। इसलिए अभी तक हमारे देश में कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं है।
और इन सब तथ्यों से ये बात भी सामने आती है की हिंदी भाषा को जो भी सम्मान प्राप्त है वो सबकी सहमति से है और वो हम पर थोपी नहीं गयी है। भाषा को लेकर जो भी समस्या है वो शांति से और सवैंधानिक तरीके से निपटाया जाना चाहिए। भाषा के नाम पर नफरत फ़ैलाने वालों के बहकावे में ना आएं चाहे वो को अभिनेता हो ,राजनेता हो या कोई और हो। अगर इस तरह की ख़बरें फैलाई जा रही हो तो सतर्क हो जाइये क्योंकि हो सकता है ऐसी खबरें और नफरत ज्यादातर तभी फैलाई जाती हैं जब कोई चुनाव आने वाला होता है या किसी एक फिल्म को या कई फिल्मों को पब्लिसिटी देना होता है। वैसे भी आम आदमी का मुद्दा होना चाहिए रोजगार, अच्छा जीवनशैली ,साफसफाई, सुरक्षा ,अच्छा पर्यावरण ,विकास इत्यादि।
Reference------
https://www.jansatta.com/national/hindi-language-politics-expansion-debate-india/3879641/
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