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कॉलेज के दिन ख़त्म हो चुके थे। एक के बाद एक मेरे पास कई डिग्रीयां इकटठी हो चुकी थी। और नौकरी उसका क्या कहना। ढेरों सारे फार्म भर चूका था ,ढेर सारे एग्जाम दे चूका था ,कई बार इंटरव्यू दे चूका था पर नौकरी थी की कहीं मिल ही नहीं रही थी। उन दिनों मेरी जिंदगी में बस यही चल रहा था फॉर्म भरो ,तैयारी करो और अलग अलग जगहों पर जाकर एग्जाम दो या कई जगहों पर जाकर डायरेक्ट इंटरव्यू दो। बीच बीच में घरवालों के ताने भी सुनो। अगर कोई आसपास का लड़का या लड़की किसी अच्छी नौकरी में लग जाये खासकर सरकारी नौकरी में तो उसके अलग से ताने सुनो। ऐसा लगता था की जीवन का एकमात्र लक्ष्य ही यही है नौकरी ,नौकरी और नौकरी उसके आगे मेरी सारी अच्छाइयाँ फेल थी, दुनियाँ का कोई भी करैक्टर सर्टिफिकेट मेरी इमेज नहीं सुधार सकता था। ये कहना भी गलत नहीं होगा उन दिनों के हालातों के अनुसार की "अगर नौकरी मिल जाये तो हर कोई प्यार से पास बुलाये ,नहीं तो कुछ भी हो हम सब को बोझ ही नज़र आएं "
ये घटना जो मैं बताने जा रहा हूँ ये भी उन्ही दिनों की है। जिसको जानने और समझने के बाद आप भी कुछ बातों पर चिंतन और सोचने पर मजबूर हो जायेंगे।
शाम का समय था। उन दिनों मैं अपने पिता के साथ अपने गांव गया हुआ था क्योंकि एक तो मुझे अपने गांव के पास के ही एक शहर में एग्जाम देना था और दूसरा मेरे पिता को एक रिश्तेदार के यहाँ मेरी बड़ी बुआ की बरसी में जाना था। ये दोनों काम निपटाकर हम रेलवे स्टेशन पर बैठे इंतज़ार कर रहे थे अपनी ट्रेन का ताकि वापस शहर की तरफ जा सकें। साथ में गांव में ही बनवाया हुआ लकड़ी का बैट भी था जो की पहले गांव में ही छूट गया था भूल से।
अब मैं फिर से वो बैट लेकर जा रहा था। स्टेशन पर बैठे हुए मैं इधर उधर देख रहा था और पिताजी मुझसे कुछ दूरी पर बैठे हुए इधर उधर देख रहे थे। आसपास की जगहों को देखकर बचपन की कुछ यादें ताज़ा हो गयी। स्टेशन के सामने वाली खाली जगह को देखकर याद आया की कैसे वहां कुछ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे और मैं बार बार उनकी तरफ कंकड़ फेक दे रहा था। पता नहीं क्यों मुझे उन्हें तंग करने में मज़ा आ रहा था। वो बार बार मेरी शिकायत मेरी मम्मी और मेरी बड़ी बुआ से कर रहे थे जो की एक बेंच पर बैठकर आपस में कुछ बातें कर रही थीं। और दोनों मुझे डाँट रही थी और मना कर रही थी।
और अब समय का खेल देखिये। सामने की वो जगह वैसी ही है लेकिन खाली है। मम्मी बूढ़ी हो चुकी हैं। बड़ी बुआ गुज़र चुकी हैं। और मैं बच्चे से बड़ा हो चूका हूँ।
उसके बाद मेरी नज़र स्टेशन के पीछे की तरफ गयी जहाँ एक मैदान है। मुझे याद है एक बार दशहरे की छुट्टी में मैं पिताजी के साथ साइकिल पर बैठ कर यहीं पर आया था। रास्ते में साइकिल पंचर हो गयी थी और मैं पिताजी के साथ यहाँ तक पैदल आया था। आने के बाद पता चला था की मेला कल था अब ख़त्म हो चूका है और मैदान खाली था। मेरी नज़र मैदान के उस पेड़ पर पड़ी जहाँ मेला ख़त्म होने के बावजूद वहां पर एक बाँसुरी वाला बाँसुरी बजा रहा था और बेच भी रहा था। मैंने उससे एक बाँसुरी माँगा। उसने बाँसुरी देते हुआ कहा कि बाँसुरी बजानी भी पड़ेगी ,बजाकर दिखाओ। मुझे जैसी आती थी मैंने बजा दिया। उसने कहा की क्या बात है ! बहुत बढ़िया ! और आसपास के कुछ लोगों ने तालियॉँ भी बजायी थी। पापा के चेहरे पर पैसे देते वक़्त मुस्कान थी। अब उस तरह के प्रोत्साहन के लिए मन तरसता है। अब तो जितना भी करो कम लगता है। अब राजा -रानी ,सपनों की रानी नहीं आती है। अब बस रोजगार और रोटी पानी की चिंता सताती है।
उसके बाद वहां से ध्यान हटाकर मैं फिर से अपने सामान के पास बैट हाथ में लिए हुए बैठ गया। मैंने काला चश्मा भी पहन रखा था तेज धुप के कारण और थोड़ा स्टाइल मारने के लिए भी। शाम होने को थी लेकिन धुप और गर्मी कम नहीं हो रही थी। मैं चुपचाप सामने रेल की पटरियों की तरफ देख रहा था। तभी सामने से तीन बच्चों का झुंड आता हुआ दिखा। जो की पास के ही घरों के होंगे। वो बच्चे आपस में बात करते हुए ,एक दूसरे से थोड़ा शरारत करते हुए ,आसपास की चीज़ों को निहारते हुए रेलवे स्टेशन पर घूम रहे थे। उनमें से एक की नज़र मुझ पर पड़ी और वो बोला की वो देख लगता है यहाँ कोई बड़ा मैच होने वाला है। दूसरा बोला "नहीं भाई ! ये तो किसी फिल्म का हीरो लग रहा है। मैं उनकी बातें सुनकर और उनकी तरफ देखकर मुस्कुराता रहा। वो बच्चे इसी तरह से आसपास की चीज़ें निहारते हुए आपस में बातें करते हुए एक दूसरे से छेड़छाड़ करते हुए चलते जा रहे थे। आखिर करते भी क्यों नहीं बचपन का दौर होता ही ऐसा है दुनियाँ की हर चीज़ नयी और आकर्षक होती है ,किसी तरह की कोई चिंता नहीं होती है ,मन नयी नयी उमंगों से भरा रहता है।
उन बच्चों को देखकर मुझे भी अपने बचपन का वो दौर याद आ गया जब मैं गांव में ही रहा करता था और अपने हमउम्र भाइयों और दोस्तों के साथ साथ ऐसे ही कभी कभी छुट्टियों में घुमा करता था और ढेर सारी बातें और हंसी मजाक किया करता था। तबके समय की बात ही अलग थी। एक बड़ा परिवार था लेकिन कितना अपनापन था। घर आँगन ,खेत खलिहान ,गांव की गलियां सब कितने बड़े ,खुले और अच्छे लगते थे। और एक आज का समय है की गांव के अधिकतर लोग रोजगार के लिए बाहर पलायन कर चुके हैं। आज का वो गांव लोगों से तो खाली है लेकिन तंग गलियों ,रास्तों ,छोटे छोटे घर आँगनों , उजड़ चुके खेत खलियानों और नफरत और अलगाववाद से भरता जा रहा है। क्या गांव में गांव की तरह ही तरक्की नहीं हो सकती . हरे भरे खेत खलियान हों। खेती में भी तरक्की हो बिना किसी मिलावट के। गांव में रहना और खेती करना भी एक अच्छा व्यवसाय माना जाये। पढ़ लिखकर खेती करना कोई शर्म की बात ना हो। गांव में भी तरक्की हो बिना वहां के प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुँचाये। हो सकता है इस वजह से भी गांव में रोजगार के अवसर बढ़ें और पलायन रुके। काश की ऐसा हो गांव में जातिवाद जैसी समस्याएँ बंद हो जाए।
गांव की वो संस्कृति को बढ़ावा मिले जो ना जाने कब से चली आ रही है` जिसमें गांव के आसपास के लोग यानि पड़ोसी जो किसी भी जाति से हों और उनकी आर्थिक स्तीथि कैसी भी हो वो सभी के लिए बाबा-आजी ,चाचा-चाची, भैया-भाभी, भाई-बहन ,दोस्त होते हैं। एक दूसरे की खबर रखते हैं और किसी भी तरह की जरुरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद करते हैं।
हालाँकि शहरों में जातिवाद वाली सोच कम है और कहीं कहीं ना के बराबर भी है लेकिन वो अपनेपन वाली संस्कृति भी नहीं है जो गांव में है। शहर में रहते हुए कभी कभी इसकी कमी बहुत खलती है क्योंकि आमतौर पर शहरों में किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होता है। शहरों में सिर्फ काम से मतलब होता है।
कुछ देर बाद एक आदमी वहां पर आया जिसके कपड़े मैले कुचले थे। उसने कुरता और लुंगी पहन रखा था उसके हाथ में लंबी लाठी जैसा लेकिन ऊपर से टेढ़ा और घुमा हुआ लकड़ी था। चरवाहा था शायद। मेरे पिता की तरफ देखते हुए उसके चेहरे पर एक खुशी थी और मेरे पिता के पास जाकर बोला -"प्रणाम ! कुछ चाय-वाय पिएंगे ? कुछ मंगाऊं आपके लिए ?" मेरे पिता जी जो की चुपचाप बैठे थे ऐसा लगा उसकी बात सुनकर अचानक जाग गए और भड़कते हुए बोले -"किसलिए चाय पानी पिलाओगे ?बिना जाने पहचाने किसलिए बोल रहे हो ऐसा ?" मेरे पिता ने भड़ककर और इतनी जोर से बोला की मेरी और आसपास सबकी नज़र उन लोगों की तरफ चली गयी। मैं भी उनकी तरफ हैरान होकर देखने लगा की ये क्या हो रहा है ?कहीं झगड़ा ना हो जाये ?
वो आदमी पहले तो मेरे पिता की कड़वी बातें सुनता रहा फिर मुस्कुराते हुए बोला -"अरे ! आप नहीं पहचान रहे हैं लेकिन मैं तो पहचान रहा हूँ। मैं तो पूछूँगा ही चाय पानी के लिए। मेरा तो फ़र्ज़ बनता है।"
फिर मेरे पिता उसको और ध्यान से देखने लगे और पहचानने की कोशिश करने लगे। फिर उसने किसी परिचित का नाम लिया। नाम लेते ही मेरे पिता को याद आ गया और वो उस आदमी को भी पहचान गए। मेरे पिता का चेहरा जो कुछ देर पहले गुस्से और असमंजस में दिख रहा था ,अब उस चेहरे पर खुशी और अपनापन का भाव नज़र आ रहा था। अब वो ख़ुशी से उसके बारे में और उसके परिवार के बुजुर्गों के बारे में पूछने लगे जैसे उनकी अब तबियत कैसी है ?अभी जिंदा हैं या नहीं ?और भी ना जाने कितनी बातें और किन किन के बारे में इस तरह की बातें हुई।
थोड़ी देर बाद वो आदमी स्टेशन के बाहर की तरफ चला गया। मैं उसको जाते हुए देखता रहा तब तक देखता रहा जब तक वो आँखों से ओझल ना हो गया। मैं आजतक नहीं जानता की वो कौन था और उसका मुझसे और मेरे पिता से क्या रिश्ता है। ना मैंने कभी अपने पिता से उसके बारे में पूछा और ना ही मेरे पिता ने खुद से उसके बारे में मुझे बताया। मेरे दिमाग में तो उन दिनों सिर्फ नौकरी और अच्छा कॅरियर की बातें ही चला करती थीं।
थोड़ी देर बाद रेलगाड़ी भी आ गयी। मैं उस रेल में बैठकर आसपास के खेत खलियानों को निहारता हुआ अपने पिता के साथ शहर की तरफ रवाना हो गया लेकिन अकेला नहीं कुछ सवालों के साथ जिनके जवाब मैं आज तक ढूढ़ नहीं पाया। या ये भी कह सकता हूँ की रोजगार की भाग दौड़ में इन सवालों पर विचार ही नहीं कर पाया। रोजगार ,पलायन और बिखरते रिश्तों से सम्बंधित ये सवाल और परेशानियां सिर्फ मेरे अकेले की तो नहीं हो सकती हैं।
वो भूल जो मेरी पहले की पीढ़ी ,मैं और शायद हो सकता है आगे आने वाली पीढ़ी भी करे उसे कैसे सुधारें ? अब वो चाहे रोजगार की मजबूरी हो ,अच्छी शिक्षा की मजबूरी हो या अन्य कारण हों। क्या हम इतने मजबूर हो चले हैं कि अपने मूल गांव ,पूर्वजों के घर , खेत खलियान के लिए कुछ भी अच्छा या सुधार नहीं कर सकते ?क्या जीवन में तरक्की का मतलब अपने मूल स्थान से पलायन ही है ?क्या शिक्षा और डिग्री का मतलब सिर्फ अच्छा पैकेज ही है ? क्या हम आज की शिक्षा की बदौलत अपने मूल स्थानों पर सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकते हैं ? क्या शिक्षित होने का मतलब ये मानसिकता है कि जहाँ रोजगार के अवसर ज्यादा उपलब्ध हैं ,वहां अपनी डिग्री लेकर जाओ और रोजगार के लिए हाथ फैलाओ ? क्या हम शिक्षित लोग अपनी शिक्षा के बलबूते कुछ बदलाव नहीं ला सकते हैं ? क्या महीने में एक बार मिलने वाली सैलरी ये तय करेगी की हम कहाँ रहें ,कैसे रहें ,किससे मिलें और किससे नहीं मिलें ?
इन सवालों के जवाब और हल की उम्मीद मैं सिर्फ आम जनता और खुलकर विचार करने वालों से ही कर सकता हूँ किसी सरकार व प्रशासन से नहीं क्योंकि जवाब तो मिलेगा नहीं उल्टा बदनामी मिलगी , बेकार की ,भद्दी व व्यक्तिगत टिप्पणियां मिलेंगी किसी भी आईटी सेल द्वारा। अब जो भी हो उन सवालों के जवाब तो आम जनता को ही ढूढ़ने हैं और समाधान भी निकालना है।
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