काम और भाग्य और शिक्षा

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वैसे तो आज कल देश दुनिया की खबर के लिए सूचना प्रौद्योगिकी ने बहुत तरक्की कर ली है। चाहे तो टेलीविजन पर अलग चैनल देख लो ,चाहे तो इंटरनेट के माध्यम से पता कर लो। लेकिन मैं तो अभी भी अख़बार पढ़ना पसंद करता हूँ ऐसा नहीं है की मैं इंटरनेट इस्तेमाल नहीं करता हूँ। लेकिन अख़बार मैं बचपन से ही पढता आ रहा हूँ और इससे एक जुड़ाव भी महसूस करता हूँ। अख़बार पढ़ते समय आँखों पर जोर नहीं पड़ता जैसा की मोबाइल देखते हुए होता है।

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अख़बार 

 
अखबार में समाचार, मनोरंजन ,कहानियाँ ,किसी विषय पर लेख इत्यादि बहुत कुछ होता है पढ़ने के लिए। वो अलग बात है की अखबार में समाचार एक दिन पुराना होता है। लेकिन एक जगह बैठ कर निश्चिंत होकर पढ़ा जा सकता है। कभी कभी कुछ ऐसा पढ़ने को मिल जाता है की हमारा ध्यान उस ओर सबसे ज्यादा आकर्षित हो जाता है। वो पढ़कर हमें कुछ अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है और हम उससे जुड़े मुद्दों पर सोचने लगते हैं। 
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काम और भाग्य और शिक्षा

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प्रेरणा

एक दिन अख़बार में बेंगलुरू के रमेश बाबू के बारे में पढ़ा। उनकी कहानी में मेहनत और किस्मत दोनों का मेल था। उस खबर के आगे उस दिन मुझे कोई खबर खास नहीं लगी।
एक साधारण नाई से लेकर करोड़पति बनने की उनकी कहानी दिलचस्प है। पिता के निधन के बाद रमेश बाबू ने सैलून संभालना शुरू किया। उन्होंने 1994 में अपने लिए मारुति सुजुकी ओमनी कार खरीदी। एक समय ऐसा आया की वो तीन महीनों की लोन की किश्त नहीं चूका पाए।

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बुरी हालत 

उनकी मम्मी जिस महिला के घर में काम करती थी , उसकी सलाह ने रमेश बाबू की किस्मत बदल दी। उस महिला ने कार किराया पर चलाने की सलाह दी। देखते ही देखते वर्ष 2004 तक उनके पास सात कारें हो गयी थी। उन्होंने सभी कारों को अपनी टूर एंड ट्रेवल कंपनी में लगा दिया। रमेश बाबू की लग ज़री कारों का उपयोग करने वालो में कई बड़ी फिल्मी हस्तियां ,बड़े राजनेता और उधोगपति भी शामिल हैं। 
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आय

वे रोल्स रॉयस कार का हर रोज का 50000 रुपए किराया लेते हैं। ये खबर पढ़ के मन में  कुछ अलग करके करोड़पति बनने की लालसा को जोर मिला हि साथ ही याद आ गयी बचपन की पढ़ी हुई वो कहानी जिसमें एक भीख मांगकर गुजारा करने वाले भिखारी को एक दिन आटे से भरा हुआ मटका मिल जाता है। वह बहुत खुश होता है और उसे ले जाकर अपनी झोंपड़ी के अंदर अपनी चारपाई के ऊपर लटका देता है और चारपाई पर सो जाता है और अमीर बनने के सपने देखने लगता है। 
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सपने देखना 

वह सपने में  देखता है की वह आटा बेचकर मुर्गा और मुर्गी खरीदेगा और जब वो बच्चे देंगे तो उसके पास ढेर सारे मुर्गे और मुर्गियां हो जायेंगे ,ऐसा करते करते वो बहुत सारे जानवर पालेगा और बहुत अमीर हो जायेगा ,बड़े बड़े घरों से उसे रिश्ते आएंगे और फिर एक अमीर और सुंदर लड़की से उसकी शादी होगी और फिर उसके बच्चे होंगे।
बच्चे शरारत करेंगे और वह उनकी पिटाई करेगा ऐसा सपना देखते हुए वह सच मे अपने हाथ पैर हिलाने लगा और एक हाथ मटके को लग जाता है और मटका टूट जाता है और सारा आटा बिखर जाता है। 

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सच्चाई 

दोनों कहानियों में अंतर है एक कामयाब हुआ और दूसरे के सपने हकीकत में आने से पहले ही बिखर गए। एक ने अमीर बनने के सपने नहीं देखे थे और न ही भविष्य की कोई योजना बनाई थी सिर्फ अपनी जिंदगी की उलझनों को सुलझाने की कोशिश कर रहा था ,और दूसरा सपना ही देख पाया। दोनों ही कहानियों में स्पेशल डिग्री की कोई भूमिका नहीं है। अगर इन कहानियों के आधार पर मैं ये कहूँ की जिंदगी ने चलना सिखाया है और डिग्रियों ने बाँटना तो गलत नहीं होगा।
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एहसास

इसका मतलब ये भी नहीं की हमें पढाई नहीं करनी चाहिए और डिग्री नहीं लेनी चाहिए। लेकिन ये जानना जरूरी है की पढाई है क्या ? हम पढाई क्यों कर रहे हैं ?इसकी हमारे जीवन में क्या जरूरत है ? हमारे आसपास के लोगों की पढाई के प्रति कैसी मानसिकता है ? और वो मानसिकता कितना सही है और कितना गलत ? जैसे हमारे समाज में कई तरह के मुद्दे है जिनमें कुछ बातें सही हैं तो कुछ बातें अंधविश्वास हैं। 
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पढ़ाई

पढ़ाई बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा है। बच्चे की रुचि क्या करने में है ये बहुत कम लोग सोचते हैं। लेकिन ये पता सभी को है की सभी की रुचि और काबिलीयत एक जैसी नहीं होती है। कोई पढ़ाई में बहुत अच्छा होता है ,कोई किसी एक विषय में बहुत अच्छा होता है ,किसी की संगीत में बहुत रुचि होती है ,किसी को खेल कूद में बहुत रुचि होती है इत्यादि। और ये रुचि छोटी कक्षाओं से ही बच्चों में आ जाती हैं। 

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रुचि 
   
जरूरत होती है उसे समझने और निखारने में मदद करने की। और ये जिम्मेदारी होती है शिक्षकों की और अभिभावकों की। लेकिन ज़्यादातर होता ये है की हुनर के बजाय अधिक से अधिक अंक लाने पर जोर दिया जाता है। जिसके जितने अच्छे अंक आते हैं उसकी स्कूल और समाज में उतनी ही  इज़्ज़त होती है। माता पिता भी बहुत गर्व महसूस करते है की मेरे बच्चे बहुत अच्छे अंक ला रहे हैं। अच्छे अंक लाने के कई तरीके भी हैं। मेहनत करके या फिर नकल करके।
 
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परिवार 

मेहनत करने में भी दो बातें हैं या तो आप ऐसे परिवार से हैं जिसमें आपको पढाई में मदद मिल जाती होगी यानी घर के सदस्य आपको पढाई में मदद करते होंगे और आप बहुत मन लगाकर पढ़ते होंगे और सब कुछ आपको समझ आता होगा या फिर आप रटने में बहुत माहिर होंगे। आप सारा पाठ्यक्रम रट लेते होंगे और परीक्षा के बाद भूल जाते होंगे।

अब आप परीक्षा मेहनत करके पास कर रहे हैं या नकल करके लेकिन आप भाग तो अंको के पीछे रहे हैं। क्या अंकों के पीछे भागने में हम सही मायने में जीवन जीने का हुनर सिख रहे हैं ? जो हम किताबों में पढ़ते हैं और परीक्षा देते हैं क्या उससे वाकई में हमारे अंदर वैसे गुण विकसित हो रहे हैं ? या हम पढ़ इसलिए रहे हैं की अच्छे अच्छे अंकों से परीक्षाएं पास हो जाएँ और इंटरव्यू अच्छे से हो जाये कोई अच्छी सी सरकारी नौकरी मिल जाये या फिर कोई ज्यादा पगार वाली प्राइवेट नौकरी मिल जाये। जब हमें कोई पाठ पढ़ाया जाता है चाहे हम किसी भी उम्र के रहे हों या किसी भी कक्षा के विद्यार्थी हों तो क्या हमें पता होता है की हमको जो ये पढ़ाया जा रहा है इसका हमारे जीवन में क्या महत्व है और उपयोग है हम उसे पाठ्यक्रम के रूप में लेते हैं और परीक्षा के बाद भूल जाते हैं। 

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परीक्षा के बाद  

अगर महेश बाबू की कहानी पर गौर किया जाये तो ये समझ में आता है की अपने जीवन के हालात से जूझते हुए उन्हें किसी तरह से ये समझ में आ गया की उनमें क्या हुनर है और वो क्या अच्छा कर सकते हैं और मेहनत करने के बाद उन्हें सफलता मिली।  

वैसे तो ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं लेकिन अनुभव के आधार पर हैं। हो सकता है सभी मेरे विचारों से सहमत न हों क्योंकि सबका अपना नजरिया होता है। 

लेकिन मुझे उम्मीद है कि मेरा यह लेख आपके जीवन को सही दिशा देने में मदद करेगा।

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