ऑफिस का वो पल

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करीब रात के साढ़े आठ बजे होंगे। ऑफिस के कमरे की लाइटें चालू हो चुकी थी। पूरे कमरे में कीबोर्ड के खट खट की आवाज़ गूंज रही थी। कुछ लोग आपस में काम से सम्बंधित मुद्दों पर बात कर रहे थे। कुछ लोग ब्रेक पर जाने वाले थे इसलिए थोड़ी चहल पहल थी। मैं भी अपना उस दिन का टारगेट पूरा करने में लगा था।

थोड़ी देर में कमरे में एकदम शांति हो गयी। ज्यादातर लोग ब्रेक पर जा चुके थे। मैं और दो या तीन लोग और रहे होंगे कमरे में जो अपना टारगेट जल्दी पूरा करने की कोशिश कर रहे होंगे। कुछ और समय बिता और आखिरकार मैंने अपना टारगेट पूरा कर लिया।

ऑफिस का वो पल
पूरा चाँद 

उसके बाद मैंने कीबोर्ड से अपनी उंगिलयां हटाई और इसी के साथ मेरे कीबोर्ड से खट खट की आवाज बंद हो गयी। लेकिन बाकि लोगों के कीबोर्ड से खट खट आवाजें आनी चालू थी। सामने खिड़की के बाहर पूरा अँधेरा हो चूका था। रोड के किनारे खंभे पर की लाइटें चालू थीं। रोड आती जाती गाड़ियों से भरा हुआ था। अँधेरे में ऊपर आसमान का रंग और और नीचे पेड़ पौधो का रंग एक हो चूका था। 

टारगेट पूरा करने के बाद मैंने कुर्सी थोड़ा पीछे किया और रिलैक्स होने के लिए गर्दन ऊपर करके कुर्सी पर टिका कर आँखें बंद कर लिया। आँखें बंद करते ही सामने आ गयी मेरे गांव की वो तस्वीर ,वो चाँदनी रात ,गांव के रात का वो शांत माहौल ,खुला आँगन ,और अपनी माँ के साथ चारपाई पर चैन की नींद सोता हुआ मैं। चाँद अपनी रोशनी से आँगन ,छत और सब तरफ हल्का उजाला किये हुए है और मैं अपनी माँ के बाँहों में चैन की नींद सो रहा हूँ। कितना अच्छा महसूस हो रहा था।

ऑफिस का वो पल
कुछ महसूस करना 

फिर ख्याल आया की मैं ऑफिस में बैठा हूँ। ये ख्याल आते ही वो खट खट की आवाज फिर सुनाई देने लगी जो बीच में गायब हो गयी थी। 

फिर मैंने भी ऑंखें खोली और इधर उधर देखा की कोई मेरी तरफ देख तो नहीं रहा है। आखिर ये ऑफिस है यहाँ पता नहीं किसको किस बात से समस्या हो जाये और वो शिकायत कर दे। ये समझना मुश्किल है। इसलिए थोड़ा सतर्क रहना पड़ता है। थोड़ी देर में लोग ब्रेक से आना चालू हो गए थे और थोड़ी चहल पहल भी शुरू हो गयी थी। 

मैं सोचने लगा की कितने अच्छे दिन थे वो। कितना सादा जीवन था मेरा। वो बचपन का गांव। एक बड़ा परिवार। वो अपनापन। दिन काम करने के लिए होता था और रात चैन से सोने के लिए होती थी। 

ऑफिस का वो पल
चाँद की रोशनी 

अब तो इस स्मार्टफोन के ज़माने में हमारा जीवन भी स्मार्टफ़ोन की तरह ही हो गया है।जैसे स्मार्टफोन को तब तक इस्तेमाल किया जाता है जब तक उसकी बैटरी डाउन नहीं हो जाती। वैसे हम भी काम करने के बाद अपने घर और कमरे में कुछ समय के लिए चार्ज होने के लिए आते हैं। ऐसा हर जगह तो नहीं है लेकिन ज्यादातर प्राइवेट जॉब्स में तो यही हाल है।शिफ्ट वाली जॉब करना पड़ता है। दिन रात काम करना पड़ता है। कुदरत का कोई नियम नहीं माना जाता है। किसी को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा के लिए करना पड़ता है।  किसी को अपनी रोजी रोटी के लिए करना पड़ता है। बहुत लोग ऐसे भी हैं जिनकी मानसिकता ही ऐसी है जिनके लिए अंधाधुन प्रतियोगिता और तरक्की ही सबकुछ है। 
ऑफिस का वो पल
लहराती फसलें 

ये भी सच है की गांव की जिंदगी में कुछ कमियाँ हैं  जैसे रोजगार ,जातिप्रथा ,परिवारों का आपस में तनाव इत्यादि जिसके कारण लोगों को शहर आना पड़ता है। लेकिन रोजगार के अलावा बाकि सारी समस्या शहरों में भी हैं। अगर लोग सादा जीवन ,अपनापन वाली मानसिकता को अपना लें और अंधाधुन पैसे के पीछे भागना छोड़ दें तो मुझे लगता है गांव में बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक सुलझायी जा सकती है। शहर के चकाचौंध में कभी न कभी अपना वो बचपन का गांव ,वो अपनापन ,वो सादी और सुकून भरी जिंदगी याद आ ही जाती है। 
ऑफिस का वो पल
गांव 

हम कितनी भी तरक्की कर लें ,कितनी भी सुविधाएँ जुटा लें लेकिन जो अपनापन अपने गांव जाकर महसूस होता है। वैसा अपनापन कहीं और जाकर महसूस नहीं होता है। 

ऑफिस का वो पल कितना कुछ एहसास करा गया। 

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