एड्स जागरूकता का पहला अनुभव

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कॉलेज शुरू हुए लगभग एक महीने हो चुके थे। स्कूल की तुलना में कॉलेज की जिंदगी काफी अलग थी। खासकर स्कूल के जितना अनुशासन का पालन नहीं करना पड़ता था। पुराने दोस्तों की जगह नए दोस्त बन चुके थे। 

एक दिन पुस्तकालय से निकलते हुए हम सभी आपस में बातें कर रहे थे ,तभी दो और दोस्त आये ,उनके चेहरे खिले हुए थे और बड़े ही उत्सुक होकर उन्होंने बताया की पता है कल लाइब्रेरी के रीडिंग हॉल में एड्स के ऊपर सेमिनार होने वाला है। तुम लोग आ रहे हो क्या ?हम तो आने वाले हैं ! वो एक-एक चीज़ बहुत खुल के बताने वाले हैं ! बहुत मजा आएगा ! तुम लोग भी जरूर आना !😉😋

एड्स जागरूकता का पहला अनुभव
दोस्तों का मिलना 

मैंने भी सोचा ये लोग बीमारी के बारे में जानने से ज्यादा बीमारी फ़ैलाने में इंटरेस्टेड लग रहे हैं। मैं जानता हूँ इन्हें एड्स की जानकारी नहीं चाहिए बल्कि एड्स होने से पहले क्या-क्या होता इन्हें वो सब सुनना है वो भी पूरे इमेजिनेशन के साथ😉😁। अब क्या करें उम्र ही ऐसी है। वैसे भावनाएं मेरे मन में भी हैं लेकिन मैं अपनी भावनाओं पर काबू रख सकता हूँ। 😇

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अगले दिन मैं लाइब्रेरी थोड़ा देर से पहुँचा। लाइब्रेरी में बहुत भीड़ थी किसी हाउसफुल थिएटर की तरह। मुझे सीट मिल गयी। दोस्त समय पर पहुँच गए थे। मैं भी बैठ गया और सुनने लगा। सुनाने वाले का चेहरा खिला हुआ था। वो जिस अंदाज़ में बता रहा था। उसकी ख़ुशी उसके चेहरे पर साफ़ दिख रही थी। ऐसा लग रहा था की वो ज्यादा उत्सुक थे बाकि सबसे😍।

खास बात ये थी की वो ये सब हिंदी में बता रहे थे। इस जगह पर क्षेत्रीय भाषा का प्रभाव अधिक होने के कारण हिंदी बोलने वालों को थोड़ा अलग समझा जाता है। भाषा के कारण ऐसे सेमिनार में संपर्क साधने में दिक्कत भी होती है।

वो बता रहे थे की कैसे दोस्त सेक्स के बारे में बात करना चालू करते हैं और कैसे वो रेड लाइट एरिया तक पहुंचते हैं। और जो नहीं जाना चाहता उसको कुछ इस तरह बोलते हैं की चल सिख ले तेरे को कुछ पता नहीं रहेगा ,कल को तेरी शादी होगी ,गड़बड़ करेगा तो तेरी बीवी तुझे छोड़कर भाग जाएगी।और अगर फिर भी वो न माने तो उनका ये कहना रहता है की साथ में चल तो सही तू कुछ मत करना बस देखते रहना😍। 

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सेमिनार

इतना सुनने के बाद मैं भी उठ कर चलने लगा और भी लेक्चर में जाना था और कॉलेज के बाद कंप्यूटर क्लास भी जाना था। वैसे भी एड्स से ज्यादा एड्स से पहले वाली बातों पर ज्यादा फोकस था।     

मैं जैसे ही सीढ़ियों से नीचे उतरा मुझे एक और दोस्त मिल गया उसने पूछा ," तू सेमिनार से आ रहा है क्या?"😎

मैंने कहा " हां , अभी दूसरे लेक्चर का समय हो गया है इसलिए जा रहा हूँ। चलता हूँ बाय ! मुझे कुछ खास नहीं लगा ये सेमिनार। "😏

फिर उसने रोक कर कहा ," सुन ना , सेमिनार में लड़कियां भी हैं क्या ?"😜मुझे ताज्जुब हुआ🙈 , अचानक मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी जो हम लोगों की तरह ही कॉलेज में नयी थी। और इसके साथ ज्यादा घूमती थी। पता नहीं ये दोनों सिर्फ दोस्त थे या उससे ज्यादा। उसका चेहरा शर्म से लाल था। नीचे देखकर शर्मा रही थी ,इतना शर्मा रही थी की लग रहा था पिघल जाएगी। अब मैं समझा तो इसके लिए पूछ रहा है ये सब। 😅

मैंने कहा,"हाँ है न ,लड़के और लड़की सब हैं। बिंदास जाओ। कोई समस्या नहीं है। "😄

उसके बाद मैं निकल पड़ा दूसरी क्लास के लिए। लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी की हमारे समाज में सेक्स और एड्स के प्रति जागरूकता फ़ैलाने की और सही तरीके से जागरूकता फ़ैलाने की बहुत जरुरत है। 😇

अगर मैं अपनी बात करूँ तो मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ। मेरे परिवार में बहुत सी बातों पर पाबंदिया होती हैं जैसे मैं अपने से बड़ों से ज्यादा खुल कर बात नहीं कर सकता अगर उन्होंने किसी भी मुद्दे पर कुछ कह दिया तो मैं उसपर ज्यादा बहस नहीं कर सकता फाइनली मुझे उनकी बात माननी ही है। सेक्स ,अफेयर और एड्स जैसे मुद्दों पर बहस तो बहुत दूर की बात है। मैं जिस तरह के परिवार से आया हूँ उस तरह के परिवार में किसी को भी अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन साथी चुनने की इज़ाज़त नहीं होती है चाहे वो लड़का हो या लड़की।  

एड्स जागरूकता का पहला अनुभव
समझना 
मैंने ऐसे कई परिवारों के बारे में सुना है जिसमे ऐसी कोई भी पाबन्दी नही होती है। फ़िल्मी दुनिया के बारे में सोचता हूँ तो लगता है वो लोग तो किसी भी तरह के सामाजिक बंधन को नहीं मानते होंगे। खैर हम तो उनके बारे में सिर्फ सोच सकते हैं  और अनुमान लगा सकते हैं। वैसे मुझे जिस तरह के पाबन्दी से गुजरना पड़ा है उससे मुझे एक फायदा तो हुआ है की मैं लड़कियों से दूरी बना कर ही रखता था। सिर्फ करियर और भविष्य की चिंता रहती थी  उसके अलावा फिटनेस पर ध्यान रहता था। इससे हुआ ये की मुझे बाकि सब करने का मौका ही नहीं मिला। इतना तो समझ चूका हूँ की जरुरत से ज्यादा कुछ भी अच्छा नहीं होता है न तो पाबन्दी और न तो खुलापन। लेकिन हर चीज़ की सही तरह से जानकारी होना तो जरुरी है चाहे वो एड्स का मुद्दा हो या कोई और मुद्दा हो। जानकारी होगी तो जागरूकता होगी। 

एड्स जागरूकता का पहला अनुभवजरा सोच कर देखिये जब हम उम्र के उस पड़ाव पर आते हैं और हमारे शरीर में होने वाले परिवर्तन के साथ साथ हमारी सोच में भी परिवर्तन होने लगता है और कुछ नयी तरह की भावनाओं ने हमारे दिलो दिमाग में जन्म ले लिए होता है। हमारा कई चीज़ों के लिए नजरिया बदलने लगता है खासकर विपरीत सेक्स को लेकर। ये एक ऐसा मुद्दा होता है जिसके बारे में किसी से बात भी नहीं की जा सकती है। उन बड़ो से भी नहीं जिनकी वजह से हम इस दुनिया में आये होते हैं और जिनके साथ बचपन से बड़े होने तक हम खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं।

उस तरह की बातें सिर्फ हम उम्र वालों से होती हैं या ये भी कह सकते हैं की उनसे होती हैं जो उस समय उस तरह के दौर से गुज़र रहे होते हैं और उनके अंदर भी वही भावनाएं होती हैं जो हमारे अंदर होती हैं। लेकिन उनसे भी कोई समाधान नहीं मिल सकता क्योंकि उनके मन में भी वही भावनाएँ और सवाल होते हैं जो हमारे मन में होते हैं। वो भी उतने ही नासमझ और ग़लतफ़हमी से घिरे होते हैं जितने की हम होते हैं। 

ऐसे में उम्र के उस पड़ाव में जो हमें एक हद तक कुछ गलत करने से रोकता है वो है हमारे घरों में और समाज में फैली हुई मर्यादा जिसकी भले ही किसी को परिभाषा ना बतानी नहीं आती हो लेकिन समझ में सभी को आती है और ये हमें हमारे बचपन से ही संस्कार के रूप में मिलनी शुरू हो जाती है।

लेकिन ये मर्यादा हमे एक हद तक तो रोक सकता है लेकिन उम्र के उस मोड़ पर पनपती हुई भावनाओं और इच्छाओं के बारे में सही जानकारी नहीं दे सकता है और ना ही हल निकाल सकता है। इसलिए मर्यादा के साथ साथ
एड्स जागरूकता का पहला अनुभव
ये समझना भी बहुत जरुरी है की उस समय ये हमारे साथ क्यों होता है और इसके पीछे सही कारण क्या है और उपाय क्या है। इनके बारे में सोचना ,बताना और जागरूक करना भी बहुत जरुरी है। यहां मैं अपना ही उदाहरण देना चाहूँगा की मैं ये मानता हूँ की अपने परिवार और अपने आसपास के समाज से मिले हुए संस्कार और मर्यादा के कारण मैंने उम्र के उस मोड़ पर पनप रही भावनाओं में बहकर कोई गलत और असामाजिक कदम नहीं उठाया लेकिन ये भी सही है की एक लम्बे समय तक मुझे उन चीज़ों के बारे में कुछ खास जानकारी नहीं थी या ये कहूं की मैं उन मुद्दों पर जागरूक नहीं था और धीरे धीरे वो भावनाएँ दब कर रह गयीं और बीच बीच में बैचैन करती रहीं। मैंने संस्कारों और मर्यादा को अपने जीवन में इतना उतार लिया था की मैं किसी से ज्यादा दोस्ती ही नहीं करता था खासकर लड़कियों से तो बिलकुल ही दूर रहता था। कॉलेज के दिनों में मेरे बारे में मशहूर था की इसको अपनी जवानी का एहसास ही नहीं है। एक दिन मुझे ये भी समझ में आया की कुछ लड़कियां मुझे अकड़ू और घमंडी समझती हैं। कुछ सहपाठियों  के मन में ये जिज्ञासा भी रहती थी की ये ऐसा क्यों है बाकि लड़कों की तरह ये सबसे घुलता मिलता क्यों नहीं है। हालाँकि मेरे ऐसे व्यवहार के पीछे और भी कारण थे लेकिन खास कारणों में से एक था अपने घर और समाज से मिली हुई मर्यादा। 

वो अलग बात है की अपने नौकरी के दौरान जब मैं अपने जीवन में थोड़ा प्रैक्टिकल हुआ तब मेरे बहुत से दोस्त बनें जिनमे बहुत से लड़के भी थे और
एड्स जागरूकता का पहला अनुभव

लड़कियाँ भी थी। और तब तक ये भी समझ में आ चूका था की लड़कियां भी अच्छी दोस्त ,मुँहबोली बहन ,और दूसरे कामों में मदद कर सकती हैं जैसे हम लड़के एक दूसरे की दोस्ती में बंधकर करने के लिए तैयार होते हैं। बस जरुरत होती है तो एक दूसरे को सही से समझने की और अच्छा व्यवहार करने की। 

मैं इस बात से भी इंकार नहीं कर सकता की उम्र के उस पड़ाव पर मैंने बेसक मर्यादा की भावना की वजह से कोई गलत कदम नहीं उठाया लेकिन ये भी सच है की मेरे आसपास ऐसे कोई नर और मादा नहीं थे जो उस समय मेरे अंदर पनप रही और बेचैन कर रही भावनाओं को और भड़का दे और बहकाकर कुछ गलत कदम उठाने पर मजबूर कर दे। इसलिए भी बहुत जरुरी है की सही जानकारी हो ,जागरूकता हो अब चाहे वो एड्स का मुद्दा हो या इससे जुड़ा हुआ कोई भी मुद्दा हो। किसी भी मुद्दे पर खुलकर बात करना अच्छा होता है लेकिन मर्यादा के साथ। 




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